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A Story About Madan Mohan | The Most Melodious Music Composer | India Hot Topics | Anyflix
11-02-2022
A Story About Madan Mohan | The Most Melodious Music Composer | India Hot Topics | Anyflix
नमस्कार दोस्तों,आप सभी श्रोताओं को राहुल नय्यर का हार्दिक अभिनन्दन। एक उम्दा म्यूजिक किसी भी सिनेमा की जान होती है। एक अच्छा संगीत हमेशा श्रोता के मन को पसंद आता है और उसको सुनने वाला श्रोता दशकों दशक उस गीत से जुड़ा रहता है। संगीत नहीं तो जीवन में रस नहीं ऐसा मानने वाले अपने युग के महान संगीतकार मदन मोहन ने ढेरों मन को छू जाने वाले गीतों का निर्देशन किया। आइये आज हम अपने इस पॉडकास्ट में 3 दशकों तक श्रोताओं के दिलों पर राज करने वाले संगीतकार मदन मोहन के बारे में जानेंगे।  मदन मोहन हिन्दी फिल्मों के एक प्रसिद्ध संगीतकार हैं। अपनी गजलों के लिए प्रसिद्द इस संगीतकार का पूरा नाम मदन मोहन कोहली है। युवावस्था में मदन मोहन एक सैनिक हुआ करते थे। मदन मोहन शुरुआत से ही संगीत काफी पसंद करते थे। फ़ौज की नौकरी छोड़ने के बाद उन्हें ऑल इंडिया रेडियो से जुड़ने का मौका मिला। रेडिओ में कई सालों में काम करने के बाद मदन मोहन को बम्बई जाने का मौका मिला। तलत महमूद तथा लता मंगेशकर से इन्होने कई यादगार गज़ले गंवाई जिनमें 1962 में बानी फिल्म अनपढ़ की मशहूर ग़ज़ल - आपकी नजरों ने समझा, प्यार के काबिल मुझे ,,, शामिल है। इनके मनपसन्द गायक मौहम्मद रफ़ी हुआ करते थे। जब ऋषि कपूर और रंजीता की फिल्म लैला मजनू बन रही थी तो गायक के रूप में किशोर कुमार का नाम आया, परन्तु मदन मोहन ने साफ कह दिया कि पर्दे पर मजनूँ की आवाज़ तो रफ़ी साहब की ही होगी और अपने पसन्दीदा गायक मोहम्मद रफी से ही वो गीत गवाया। इस तरह मुहम्मद रफ़ी की दिलों में उतरने वाली आवाज़ और मदन मोहन का जादुई संगीत दोनों ने मिलकर लैला मजनूँ को एक बहुत बड़ी म्यूजिकल हिट बना दिया था। 25 जून 1924 को, बगदाद में मदन मोहन का जन्म हुआ, उनके पिता राय बहादुर चुन्नीलाल इराकी पुलिस बलों के साथ महा-लेखाकार के रूप में काम कर करते थे। मदन मोहन ने अपने जीवन के प्रारंभिक वर्ष मध्य पूर्व में बिताए थे। 1932 के बाद, उनका परिवार अपने पैतृक स्थान पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के झेलम जिले में लौट आया था। मदन मोहन को अपने दादा-दादी की देखभाल के लिए घर पर ही छोड़ दिया गया, जबकि उसके पिता व्यवसाय के अवसरों की तलाश में बॉम्बे आ पहुंचे थे। उन्होंने अगले कुछ वर्षों तक लाहौर के स्थानीय स्कूल में पढ़ाई की। लाहौर में रहने के दौरान, उन्होंने बहुत कम समय के लिए एक करतार सिंह नामक संगीतकार से शास्त्रीय संगीत की मूल बातें सीखीं। संगीत में उन्हें कभी कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं मिला फिर भी वे रोज़ प्रैक्टिस किया करते थे। कुछ समय बाद, उनका परिवार मुंबई आ गया जहाँ उन्होंने बायकला में सेंट मैरी स्कूल से सीनियर सेकण्डरी स्कूल की पढाई को पूरा किया। मुंबई में, 11 साल की उम्र से ही उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो द्वारा प्रसारित बच्चों के कार्यक्रमों में प्रदर्शन करना शुरू कर दिया था। 17 साल की उम्र में, उन्होंने देहरादून के कर्नल ब्राउन कैम्ब्रिज स्कूल के संगीत पाठ्यक्रम में भाग लिया जहाँ उन्होंने एक साल का प्रशिक्षण पूरा किया।वर्ष 1943 में मदन मोहन सेना में द्वितीय लेफ्टिनेंट के रूप में शामिल हुए। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के आखिरी दो साल तक सेना में सेवा की, जब उन्होंने सेना छोड़ दी और अपने संगीत हितों को आगे बढ़ाने के लिए मुंबई लौट आये थे। वर्ष 1946 में, मदन मोहन ऑल इंडिया रेडियो, लखनऊ में कार्यक्रम सहायक के रूप में शामिल हुए, जहाँ वे उस्ताद फैयाज खान, उस्ताद अली अकबर खान, बेगम अख्तर और तलत महमूद जैसे विभिन्न कलाकारों के संपर्क में आए। इन दिनों के दौरान उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों के लिए संगीत की रचना भी की | 1947 में, उन्हें ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली में स्थानांतरित कर दिया गया जहाँ उन्होंने छोटी अवधि के लिए काम किया। उन्हें गायिकी का बहुत शौक था, और इसलिए 1947 में उन्हें दो गज़ल रिकॉर्ड करने का पहला मौका मिला। आइये जानते है उनके बेहतरीन संगीतों में से कुछ चुनिंदा गीत ,,, एक हसीं शाक को दिल मेरा ,,, फिल्म दुल्हन एक रात की 1967लग जा गए की फिर ये रात हो न हो ,,, फिल्म वो कौन थी 1964 थोड़ी देर के लिए मेरे हो जाओ ,,, फिल्म अकेली मत जइयो 1963मैं तो तुम संग नैन मिलाके ,,,, फिल्म मनमौजी 1962उनके ये शिकायत है ,, फिल्म अदालत 1958कौन आया मेरे मन के द्वारे ,,,, फिल्म देख कबीरा रोया 1957वर्ष 2004 में फिल्म वीर ज़ारा के लिए उनकी उपयोग न की गई धुनों का इस्तेमाल किया गया था। जो धुन उन्होंने जावेद अख्तर को सुनाई थी। उनकी इस धुन के लिए ही जावेद अख्तर ने इस फ़िल्म का सबसे प्रसिद्ध गीत "लिए तेरे हम है जिए ,,, होंठों को सीए" को लिखा था।तो साथियों मुझे उम्मीद है आपको आज का ये पॉडकास्ट पसंद आया होगा। हमारे काम को सराहने के लिए आप हमारे पॉडकास्ट को शेयर भी कर सकते हैं। आपका एक like और subscription हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। जुड़े रहिये हमारे साथ सिनेमा जगत की ढेरों जानकारी के लिए। मिलेंगे अगले पॉडकास्ट में। स्वस्थ रहें मुस्कुराते रहेंest episode!
A Story About Laxmi Kant Pyarelal | The Legendry Musicians | India Hot Topics | Anyflix
10-02-2022
A Story About Laxmi Kant Pyarelal | The Legendry Musicians | India Hot Topics | Anyflix
नमस्कार दोस्तों,आप सभी श्रोताओं को राहुल नय्यर का हार्दिक अभिनन्दन। पिछले पॉडकास्ट में हमने आप को मदन मोहन के जीवन के बारे में पॉडकास्ट सुनाया था। आज हम इसी संगीत की कड़ियों को जोड़ते हुए आगे बढ़ेंगे और जानेंगे भारतीय सिनेमा के लीजेंडरी संगीतकार लक्ष्मीकांत - प्यारेलाल के सुपरहिट संगीत और उनके जीवन से जुडी कुछ ख़ास बातें। तो चलिए शुरू करते हैं आज का ये पॉडकास्ट। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल भारतीय सिनेमा जगत की एक लोकप्रिय संगीतकार की जोड़ी है। इस जोड़ी का नाम लक्ष्मीकांत शांताराम कुदलकर और प्यारेलाल रामप्रसाद शर्मा के नामो के पहले अक्षर को जोड़ कर बनाया गया था इस जोड़ी ने 1963 से 1998 तक 635 हिंदी फिल्मों के लिए संगीत रचना की और इस समय के लगभग सभी उल्लेखनीय फिल्म निर्माताओं के लिए काम किया। जिसमे राज कपूर, देव आनंद, बी.आर. चोपड़ा, शक्ति सामंत, मनमोहन देसाई, यश चोपड़ा, सुभाष घई और मनोज कुमार सम्मिलित थे।आइये अब जानते हैं इनके प्रारंभिक जीवन के बारे में ,,, शुरुआत करते हैं लक्ष्मीकांत जी से ,,,लक्ष्मीकांत शांताराम कुदलकर का जनम 3 नवंबर 1937 को लक्ष्मी पूजन के दिन हुआ था, अपने जन्म के दिन की वजह से, उनका नाम लक्ष्मी रखा गया, जो देवी लक्ष्मी के नाम पर था। उन्होंने अपने बचपन के दिन मुंबई के विले पार्ले पूर्व की गन्दी बस्तियों में अत्यंत गरीबी के बीच बिताया। उनके पिता की मृत्यु उस समय हो गई थी जब वे बच्चे ही थे। अपने परिवार की खराब वित्तीय हालत के कारण वे अपनी स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं कर सके। अपने पिता के दोस्त की सलाह से लक्ष्मीकांत ने सारंगी और उनके बड़े भाई ने तबला बजाना सीखा। उन्होंने जाने-माने सारंगी वादक हुसैन अली की सोहबत में दो साल बिताए।लक्ष्मीकांत ने अपनी फिल्म कैरियर की शुरुआत एक बाल अभिनेता के रूप में हिंदी फिल्म भक्त पुंडलिक (1949) और आंखें (1950) फिल्म से की। उन्होंन कुछ गुजराती फिल्मों में भी काम किया। अब जानते हैं प्यारेलाल जी के आरंभिक जीवन के बारे में ,,,प्यारेलाल रामप्रसाद शर्मा का जन्म सितंबर 3, 1940 को प्रसिद्ध बिगुल वादक पंडित रामप्रसाद शर्मा (जो बाबाजी के नाम से लोकप्रिय थे) के यहाँ हुआ था। पंडित रामप्रसाद शर्मा ने ही प्यारेलाल को संगीत की मूल बातें सिखाई थी। प्यारेलाल जी का जन्म उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। उन्होंने 8 साल की उम्र से ही वायलिन सीखना शुरू कर दिया था और प्रतिदिन 8 से 12 घंटे का अभ्यास किया करते थे। प्यारेलाल ने एंथनी गोंजाल्विस नाम के एक गोअन संगीतकार से वायलिन बजाना सीखा। 12 वर्ष की उम्र में प्यारेलाल के परिवार की वित्तीय स्थिति काफी खराब हो गयी एवं उन्हें इस उम्र में स्टूडियो में काम करना पड़ा। प्यारेलाल को परिवार के लिए पैसे कमाने के लिए रंजीत स्टूडियो एवं अन्य स्टूडियो में वायलिन बजाना पड़ता था।संगीतकार जोड़ी का गठनजब लक्ष्मीकांत १० साल के थे तब उन्होंने लता मंगेशकर के कंसर्ट में जो रेडियो क्लब, कोलाबा हुआ था उसमे सारंगी बजाने का काम किया। लता जी उनसे इतना प्रभावित हुई की संगीत कार्यक्रम के बाद उन्होंने लक्ष्मीकांत से बात की थी। आइये अब जानते हैं की इस संगीतकार जोड़ी का गठन कब हुआ था ,,,जब लक्ष्मीकांत 10 साल के थे तब उन्होंने लता मंगेशकर के concerts में , जो रेडियो क्लब कोलाबा में हुआ था उसमे सारंगी बजाने का काम किया। लता जी उनसे इतना प्रभावित हुई की संगीत कार्यक्रम के बाद उन्होंने लक्ष्मीकांत से बात की थी। मंगेशकर परिवार द्वारा संचालित बच्चों के लिए संगीत अकादमी सुरेंद्र कला केंद्र में लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल मिले। दोनों की आर्थिक रूप से खराब पृष्ठभूमि के बारे में पता चलने के बाद, लता ने अपने संगीत निर्देशकों नौशाद , सचिन देव बर्मन और सी रामचंद्र से दोनों को संगीत की शिक्षा देने का आग्रह किया था । वित्तीय कमज़ोरी और हम उम्र ने लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल को बहुत अच्छा दोस्त बनाया। वे रिकॉर्डिंग स्टूडियो में लम्बा समय एकदूसरे के साथ बिताते थे। जब लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को काम मिलने लगा तब मेहनताना बहुत कम होने की वजह से उन्होंने मद्रास (अब चेन्नई ) जाने का फैसला किया। लेकिन, वहां भी यही कहानी थी। इसलिए, वे लौट आए। इस समय लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के कुछ सहयोगियों में पंडित शिवकुमार शर्मा और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया (बांसुरी) शामिल थे। बाद में, शिवकुमार और हरिप्रसाद ने भी हिंदी सिनेमा में शिव-हरि के रूप में काम किया। 1950 के दशक के लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने लगभग सभी प्रतिष्ठित संगीत निर्देशकों ओ। पी। नैय्यर और शंकर-जयकिशन के साथ काम किया. 1953 में, वे कल्याणजी-आनंदजी के सहायक बन गए और 1963 तक उनके साथ सहायक के रूप में काम किया। उन्होंने सचिन देव बर्मन (जिद्दी में) सहित कई संगीत निर्देशकों के लिए संगीत अरेंजर्स के रूप में भी काम किया। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आर डी बर्मन बहुत अच्छे दोस्त बने रहे, तब भी जब लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने स्वतंत्र रूप से संगीत देना शुरू किया।लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल भारतीय शास्त्रीय संगीत और साथ ही पश्चिमी संगीत के अपने लोक धुनों और अर्ध-शास्त्रीय संगीत के लिए सबसे लोकप्रिय थे। शागिर्द के लिए उन्होंने रॉक-एन-रोल -स्टाइल धुनों की रचना की, और क़र्ज़ में डिस्को स्टाइल संगीत की रचना की । इस फिल्म के लिए उन्होंने एक ग़ज़ल का वेस्टर्न वर्शन लिखा जो दर्शकों के बीच बहुत फेमस हुआ। "दर्द-ए-दिल दरद-ए-जिगर" गीत के लिए दोनों को उस वर्ष फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक पुरस्कार प्राप्त हुआ।दोस्तों ये था "लक्ष्मीकांत - प्यारेलाल" के जीवन पर बना आज का पॉडकास्ट। उम्मीद है आपको पसंद आएगा। चलता हु अब फिर मिलूंगा अगले एपिसोड में कुछ अन्य जानकारी के साथ। स्वस्थ रहें - सुरक्षित रहें। t episode!
सफर ए ज़िन्दगी
31-01-2022
सफर ए ज़िन्दगी
हैलो दोस्तों , कैसे है आप सब ? बढ़िया ! अरे बढ़िया क्यों नहीं होंगे मेरे साथ गुफ्तुगू करके तो आपका सारा स्ट्रेस किसी कोने में दुबक कर बैठ जाएगा। और कहते है न की अगर हम दिमागी तौर पर खुश है तो हम हर परिस्तिथि से आसानी से निकल जाते है। तभी तो आपका और मेरा कनेक्शन इस बात का पुख्ता सबूत है की हम दो और दो चार नहीं ग्यारह है। आज की भागदौड़ की जिंदगी में हर कोई सुकून के पल ढूढ़ता है। किसी ऐसे कंधे की तलाश करता है जो उसको सुन सके उससे बातें कर सके। इसलिए मै सिद्धार्थ नय्यर आपके साथ कुछ पलों को बाँटने ,आपकी कुछ सुनने और सुनाने आया हु। हम आपके साथ ऐसे लोगो की कहानियाँ ,किस्से ,बातें शेयर करेंगे जब जिंदगी में उन्होंने खुद को सबसे ज्यादा अकेला महसूस किया और फिर किस्मत कहिये या मिरकल उन्हें मिल ही गया एक दोस्त, एक कन्धा जिसने ने केवल उनके अकेलेपन को न केवल दूर किया बल्कि जिंदगी जीने की दिशा बदल दी।  हमारे साथ भी तो कई बार ऐसा होता है की कभी पढाई का प्रेशर तो कभी नौकरी की चिंता और कभी सपनों के उधेड़बुन में खुद को खोता हुआ पाना पर आपसे यही कहूँगी की जैसे हर रात के बाद सवेरा होता है तो हर प्रॉब्लम में कही न कही सलूशन छिपा होता है बस जरूरत है आपके थोड़े से साहस की जो आपमें में ही है । आज हम आपको एक ऐसे व्यक्तित्व की कहानी के बारें में बताएँगे जिसके आगे गरीबी ने भी अपने घुटने तक दिए। जी हां ,हम बात कर रहे है सुपर 30 के फाउंडर आनंद कुमार की। जिसने ऐसे बहुत से बच्चों के सपनों को पूरा किया जिनके पास खाने तक के पैसे नहीं है। घर नहीं था। था तो सिर्फ सपना। इस समाज में अपने सपने को पूरा करना।अगर आनद कुमार को गरीबो का मसीहा भी कहा जाए तो दोराहे नहीं होगी।हम आपको आनंद कुमार की सफलता की कहानी इसलिए शेयर कर रहे है क्योकि मै आपको यह बताना चाहता हूँ कि परिस्थितियाँ आपके सामने कैसी भी आए ।आपके हौसले से कम नहीं है। आनंद कुमार ने न केवल' अपनी गरीब परिस्थिति को दरकिनार किया बल्कि न जाने कितने बच्चों को जिंदगी को सवांरा है।दोस्तों परेशानियाँ हमारी जिंदगी में भी आ सकती है और हमारे आस पास के लोगो की जिंदगी में भी।अपनी प्रॉब्लम्स का तो सभी सोलूशन करते है पर आपके व्यक्तित्व की पहचान तो इसमें है की आप दूसरो की जिंदगी को कैसे बेहतर बनाते है। तो हम आते आनंद कुमार जी की कहानी पर।हम सभी जानते है की भारत में IIT जैसे टॉप इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने का सपना कई छात्र-छात्रायें देखते है। अब ऐसे में उनका मार्गदर्शक बनती हैं – कोचिंग संस्थायें। लेकिन कोचिंग संस्थाओं की भारी-भरकम फीस भर कर पाना हर छात्र के लिए संभव नहीं हो पाता। अब जो लोग दो वक्त का पेट ढंग से नहीं भर पा रहे उनके लिए तो यह सिर्फ सपना देखने की बात रह जाती है।ऐसे आर्थिक रूप से कमज़ोर छात्रों के मसीहा बनकर उभरे हैं –, जो अपने सुपर 30 संस्थान में इन छात्रों को मार्गदर्शन प्रदान कर रहे हैं और उनके लिए न सिर्फ टॉप इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश का मार्ग, बल्कि उज्जवल भविष्य के मार्ग की ओर बढ़ रहे है।आनंद कुमार का जन्म 1 जनवरी 1973 को बिहार के पटना जिले में हुआ थाl उनके पिता डाक विभाग में क्लर्क के पद पर कार्यरत थे। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। छोटी सी नौकरी के साथ आनंद कुमार के पिता के लिए उनको किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ा पाना संभव नहीं था। उन्होंने आनंद कुमार का दाखिला एक हिंदी माध्यम सरकारी स्कूल “पटना हाई स्कूल’ में करवा दिया।आनंद कुमार एक प्रतिभावान छात्र थे। उनकी रुचि गणित विषय में अधिक थी। इसलिए स्कूल के दिनों में ही गणित के सवालों को उन्होंने अपना दोस्त बना लियाl वे गणित के कठिन से कठिन सवालों को भी झट से हल कर दिया करते थे। उन्हें हमेशा ऐसा लगता था और बेहतर करना है अभी कुछ और अच्छा बाकी है यह चंद पंक्तियाँ अगर मै उनके विषय में कहुँ तो कोईअतिश्योक्ति नहीं होगी - जिंदगी की असली उड़ान अभी बाकी है ,हमारे जज्बातों का इम्तिहान अभी बाकी है।अभी तो नापी है मुट्ठी भर जमीनआगे सारा आसमान अभी बाकी है।समय के साथ आनंद कुमार की प्रतिभा निखरती गई और वे गणित में निपुण होते गए। ग्रेजुएशन के दौरान उन्होंने ‘नंबर थ्योरी’ पर एक पेपर सबमिट किया, जिसे मैथेमेटिकल स्पेक्ट्रम और मैथेमेटिकल गैजेट में पब्लिश किया गया।उनके पेपर्स की चर्चा देश-विदेश में हुई। जिसकी बदौलत 1996 में उन्हें यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैम्ब्रिज में एडमिशन के लिए कॉल लेटर आयाl पिता सहित परिवार के सभी लोग आनंद कुमार की इस सफ़लता से बहुत ख़ुश थे। लेकिन जब उन्हें पता चला कि कैम्ब्रिज जाने के लिए 6 लाख रूपये की आवश्यकता पड़ेगी, तो सबकी ख़ुशी निराशा में तब्दील हो गईl उनके परिवार की न आर्थिक स्थिति यहाँ रोड़ा बन गई। कहीं से भी आर्थिक सहायता न मिलने के कारण वे यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैम्ब्रिज में पीएचडी के लिए दाखिला नहीं ले सके।इसी दौरान उनके पिता की भी मृत्यु हो गई। पिता की मृत्यु के बाद उनके स्थान आनंद कुमार के सामने नौकरी का प्रस्ताव आया क्योकि माता पढ़ी-लिखी नहीं थी और उनके भाई प्रणव कुमार की आयु कम थी। इसलिए यह प्रस्ताव आनंद कुमार को मिलाl लेकिन आनंद सरकारी नौकरी नहीं करना चाहते थे। उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।आनंद कुमार के इस निर्णय को माँ और भाई का भी साथ मिला। उनकी माँ को पड़ोस में रहने वाली एक सिंधी महिला ने उड़द के पापड़ बनाने का सुझाव दिया, इस सुझाव को मानकर आनंद कुमार की माँ ने पापड़ बनाने का काम प्रारंभ किया।वे पापड़ बनाती और शाम को आनंद कुमार और उनके भाई प्रणव कुमार गली-गली घूमकर ‘आनंद पापड़’ के नाम से वह पापड़ बेचतेl इस तरह घर का गुजारा और दोनों भाइयों की पढ़ाई चल रही थी।कैम्ब्रिज न जा पाने की टीस आनंद कुमार के मन में दबी हुई थीl एक दिन भाई प्रणव कुमार ने उन्हें हौसला दिया कि क्या हुआ जो आप कैम्ब्रिज न जा सकेl जहाँ हैं वहीं से कुछ करने का प्रयास कीजियेl हिम्मत और जूनून हो, तो जहाँ हैं वहीं से आसमान की ऊँचाइयाँ छुई जा सकती हैंl यहाँ रहकर भी आप दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक बन सकते हैंl भाई प्रणव की बात आनंद कुमार के मन में घर कर गई और उन्होंने गणित की ट्यूशन क्लासेस प्रारंभ कीl आनंद कुमार की कक्षा में प्रारंभ में मात्र 6 बच्चे पढ़ने आयेl लेकिन धीरे-धीरे यह संख्या बढ़ने लगीl आनंद कुमार के पढ़ाने के तरीके की चर्चायें होने लगीl वे छात्रों को रुचिकर ढंग से और प्रेरित करते हुए पढ़ाते थेl नतीज़ा ये हुआ कि मात्र तीन सालों में छात्रों की संख्या 6 से 500 हो गईlइस क्लास का नाम उन्होंने ‘रामानुजन स्कूल ऑफ़ मैथेमेटिक्स रखाl प्रारंभ में 5०० रूपये की सालाना फीस पर यहाँ गणित, रसायन और भौतिकी की शिक्षा छात्रों को दी जाने लगीl यहाँ के छात्रों को IIT और JEE जैसी टॉप इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश की परीक्षाओं के लिए तैयार किया जाता हैl वर्ष २००० की बात हैl एक गरीब छात्र आनंद कुमार के पास आयाl वह IIT की तैयारी करना चाहता थाl लेकिन उसके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब थी और वह ‘रामानुजन स्कूल ऑफ़ मैथेमेटिक्स’की ट्यूशन फीस देने में असमर्थ थाl उसे देख आनंद कुमार को अपना बचपन याद गयाl उन्हें लगा कि पैसे के अभाव में किसी होनहार छात्र का भविष्य बर्बाद नहीं होना चहिये और उन्होंने उस छात्र को बिना पैसे लिए पढ़ायाl उस छात्र का चयन IIT में हो गयाlउस गरीब छात्र की सफ़लता देख आनंद कुमार ने सोचा कि क्यों न ऐसा एक कोचिंग संस्थान प्रारंभ किया जाये, जहाँ ऐसे ही आर्थिक रूप से कमज़ोर बच्चों को मुफ़्त में IIT और JEE की तैयारी कराई जायेlआनंद कुमार और उनके भाई प्रणव कुमार ने तय किया कि एक प्रवेश परीक्षा लेकर 30 गरीब बच्चों को चुना जायेगा और उन्हें पढ़ाने से लेकर रहने-खाने की सारी सुविधायें उनको प्रदान की जायेगीl इन कार्य में आनंद कुमार की माँ भी सामने आई और उन्होंने ऐसे बच्चों के लिए खाना बनाने की ज़िम्मेदारी अपने हाथों में ले लीlइस तरह वर्ष 2002 से ‘सुपर 30’ की शुरुवात हुईl इसका सारा मैनेजमेंट आनंद कुमार के भाई प्रणव कुमार देखते हैl ‘सुपर 30 के पहले साल 30 में से लगभग 26 छात्रों का चयन IIT में हुआl ‘सुपर 30 की सफ़लता देखकर कई सरकारी और प्राइवेट संस्थायें वित्तीय सहायता के लिए सामने आई, लेकिन आनंद कुमार ने कोई भी सहायता लेने से इंकार कर दियाl वे अपने दम पर ही इस संस्थान को चलाना चाहते हैंl ‘सुपर ३०’ का मैनेजमेंट ‘रामानुजन स्कूल ऑफ़ मैथेमेटिक्स से मिलने वाली फीस के पैसों से होता हैl आज ‘सुपर 30 में पढ़ने वाले छात्र देश-विदेश की बड़ी-बड़ी कंपनियों में उच्च पदों पर कार्यरत हैं और इस तरह यह संस्थान निःस्वार्थ भाव से आर्थिक रूप से कमज़ोर छात्रों का भविष्य सुधारने में लगा हुआ हैl आनंद कुमार के बारे में कहना गागर में सागर में समान है। हम आपको उनकी पुरस्कारों और उपलब्धियों से परिचित करवाते है।वर्ष २००९ में अमरीकी समाचार पत्र ‘द न्यूयार्क टाइम्स ने आनंद कुमार के बारे में आधे पन्ने का लेख प्रकाशित कियाlपूर्व मिस जापान और अभिनेत्री नोरिका फुजिवारा ने पटना आकर आनंद कुमार के कार्यों पर एक शॉर्ट फिल्म बनाईlआनंद कुमार को BBC के कार्यक्रमों में भी स्थान प्राप्त हुआlआनंद कुमार के ‘सुपर 30 का नाम ‘लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज हैlटाइम पत्रिका ने वर्ष 2010 में आनंद कुमार के गरीब छात्रों की शैक्षणिक उन्नति के लिए चलाये जा रहे संस्थान ‘सुपर 30’ को ‘बेस्ट ऑफ़ एशिया 2010 की सूची में सूचीबद्ध कियाlन्यूज़ वीक पत्रिका ने आनंद कुमार के कार्यों को देखते हुए ‘सुपर 30’ को चार सर्वाधिक अभिनव संस्थान में स्थान दियाlपूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के विशेष सलाहकार राशिद हुसैन ने ‘सुपर ३०’ को देश का सर्वश्रेष्ठ संस्थान कहा हैlआनंद कुमार को जर्मनी के सैक्सोनी प्रान्त के शिक्षा विभाग द्वारा सम्मानित किया गया हैl इसके अलावा ब्रिटेन, कोलंबिया, कनाडा के शिक्षा मंत्रालय द्वारा भी आनंद कुमार को सम्मानित किया गयाlसंयुक्त राष्ट्र की मैगजीन ‘मोनोकले’ द्वारा आनंद कुमार को विश्व के २० अग्रणी शिक्षकों की सूची में शामिल किया गया हैlआनंद कुमार भारतीय प्रबंध संस्थान अहमदाबाद, कई आईआईटी कॉलेजों, ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय, टोक्यो विश्वविद्यालय तथा स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में अपने अनुभवों के बारे में भाषण दे चुके हैlआनंद कुमार को महानायक अमिताभ बच्चन के शो ‘कौन बनेगा करोड़पति में विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गयाlआनंद कुमार के जीवन पर आधारित एक हिंदी फिल्म का भी निर्माण किया किया गया है, जिसका नाम ‘सुपर 30 हैl इन फिल्म में सुपरस्टार ऋतिक रोशन आनंद कुमार का किरदार निभाते नज़र आए थे। इस फिल्म को बहुत प्रसिद्धि मिली।आनंद कुमार आर्थिक रूप से कमज़ोर बच्चों के लिए आनंद कुमार एक मसीहा है, जिन्होंने अपने ‘सुपर 30’ संस्थान के ज़रिये उनका भविष्य सुधारने में अपना जीवन समर्पित कर दिया हैlतो आज सफर ए जिंदगी में मुझे विश्वाश है की आपको सुपर 30 के फाउंडर की कहानी दिलचस्प लगी होगी। और साथ ही आपको यह भी समझ आया होगा की परिस्थितियाँ के हम नहीं वो हमारी गुलाम है। मतलब अगर आपने कोई काम करने की ठानी है तो कोई ऐसी ताकत नहीं जो आपको रोक सके। पूरे ब्रह्माण्ड की शक्ति आपके अंदर है। आप सब कुछ कर सकते है। तो दोस्तों चलते है कल फिर एक नई शख्सियत के साथ आपकी मुलाक़ात करेंगे तब तक के लिए मास्क लगाइए और सुरक्षित         Check out my latest episode!