INDIA'S WORLD / इंडियाज़ वर्ल्ड

प्रस्तुतकर्ता- संजय जोशी,अध्यक्ष,ओआरएफ़ और नग़मा सहर,वरिष्ठ फेलो,ओआरएफ

ओआरएफ़ की एक विशिष्ट हिंदी श्रृंखला है जो फाउंडेशन के अध्यक्ष संजय जोशी और सीनियर फेलो के रूप में ओआरएफ़ के साथ जुड़ीं नग़मा सहर द्वारा पेश की जा रही है.यह श्रृंखला शासन,राजनीति,समाज,अर्थशास्त्र,इंटरनेट और दुनिया के भविष्य से जुड़े मुद्दों पर आधारित होती है. read less
政治政治

エピソード

Is Technology Dividing the World Today? | क्या तकनीक दुनिया को बांट रही है? |
11-05-2022
Is Technology Dividing the World Today? | क्या तकनीक दुनिया को बांट रही है? |
इंडियाज़ वर्ल्ड के इस एपिसोड में समझें कैसे तकनीक के चलते दुनिया में विभाजन की स्थिति बन रही है. अंतर्राष्ट्रीय आपूर्ति श्रृंखलाओं पर इसके क्या प्रभाव पड़ रहे हैं और इसने कैसे पूर्व-पश्चिम के देशों के बीच पड़ती दरार की चिंताओं को सामने लाया है जो आने वाले दिनों में दुनिया में मौजूदा मतभेदों को बढ़ा सकती हैं. क्या हम तकनीकी विनियमन की गारंटी देकर एक द्विध्रुवीय दुनिया को रोक पाने में सक्षम हैं? क्या अंतरराष्ट्रीय समुदाय तकनीकी दुरुपयोग की रोकथाम सुनिश्चित करने के लिए तैयार होगा?इंडियाज़ वर्ल्ड का यह एपिसोड "रायसीना डायलॉग 2022" पर आधारित है जो  भू-राजनीति और भू-अर्थशास्त्र पर भारत का एक प्रमुख सम्मेलन है।
यूरोप में युद्ध भांडे फूटे पड़ोसी के || A War in Europe Shakes the Neighbourhood
04-05-2022
यूरोप में युद्ध भांडे फूटे पड़ोसी के || A War in Europe Shakes the Neighbourhood
रूस-यूक्रेन के बीच चल रहा युद्ध अब यूरोप लोगों के जीवन और आजीविका को प्रभावित करने के लिए तैयार है, और दुनिया भर की उन अर्थव्यवस्थाओं में सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल मचाने के लिए भी तत्पर है जो पहले से ही कोविड-19 से उबरने के लिए संघर्ष कर रही हैं. अमेरिका, जिसने कोरोना वायरस महामारी में  पाँच ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च किए हैं, अब खुद उच्च मुद्रास्फीति के साथ उच्च ब्याज दरों की उम्मीद कर रहा है, क्योंकि यह quantitative easing से पीछे हटने के लिए मजबूर है. इसके साथ ही, शंघाई में एक बार फिर से बढ़ते चीनी कोविड के नये मामले पहले से ही चरमराती आपूर्ति श्रृंखलाओं को प्रभावित कर रहे हैं.इन सभी विघटनकारी घटनाओं में 'यूक्रेन संकट' ही एकमात्र ऐसी घटना जो अभी तक वैश्विक शक्तियों के नियंत्रण में है. क्या वे रूस-यूक्रेन संघर्ष का समाधान बातचीत और शांति समझौते ज़रिये निकाल पाएंगे?संदेश स्पष्ट है - युद्ध रुकना चाहिए.
रूस और यूक्रेन: शांति की आस || Russia and Ukraine: The Long Dark Tunnel to Peace
06-04-2022
रूस और यूक्रेन: शांति की आस || Russia and Ukraine: The Long Dark Tunnel to Peace
#Ukraine-Russia War: रूस और यूक्रेन के बीच जारी जंग के बीच इस्तांबुल में शांति वार्ता आशा की एक किरण लेकर आई है, क्योंकि यूक्रेन और रूस दोनों ही देशों के प्रतिनिधि इस्तांबुल में आमने-सामने मुलाक़ात कर रहे हैं. क्या इस युद्ध के कुछ कम होने की उम्मीद है?इन दोनों ही देशों के बीच बातचीत अभी 28 मार्च को शुरू हुई है, और तुर्की में आमने-सामने की बातचीत निश्चित रूप से एक स्पष्ट सकारात्मक संदेश है. यूक्रेन की ओर से पहली बार कुछ प्रस्ताव पेश किए जाने की ख़बर आई है जिसमें यूक्रेन द्वारा अपनी neutrality को स्वीकार करने, डिमिलिटराइजेशन (असैन्यीकरण) और नेटो गठबंधन में शामिल नहीं किये जाने की बात है.दुर्भाग्यवश, अच्छी कूटनीति के लिए एक अच्छे माहौल की ज़रूरत होती है - जो ट्वीटर पर खोदे गए गड्ढों में उपलब्ध नहीं है. आम सहमति की आहट का एहसास हो रहा है. लेकिन, हमें इस बात को समझना चाहिए कि ये वार्ता बेहद मुश्किल और कठिन परिस्थितियों में होने वाली है.
रूस बनाम पश्चिम: संघर्ष और प्रतिबंध के बीच फंसी कूटनीति
30-03-2022
रूस बनाम पश्चिम: संघर्ष और प्रतिबंध के बीच फंसी कूटनीति
रूस और यूक्रेन के बीच चार हफ़्तों से भी अधिक समय से जंग जारी है. एक बड़ा युद्ध गतिरोध में है. पश्चिमी देश इस युद्ध में अपनी सेना नहीं भेजेंगे, लेकिन फिर भी उन्होंने रूस पर 'आर्थिक युद्ध' का बिगुल फूंक दिया है. युद्ध के तरीके जो भी हों, लेकिन अंत में यह जंग ज़ेलेंस्की और पुतिन के बीच नहीं, बल्कि रूस और 'पश्चिम' के बीच है. रूस इन उपायों के प्रभाव को कम करने की कोशिश कर रहा है और खुद के प्रतिवाद की घोषणा कर रहा है. इस बीच समस्या यह है कि ये 'आर्थिक हथियार' न केवल विरोधी पक्ष को चोट पहुंचाते हैं, बल्कि उपयोगकर्ता को भी प्रभावित करते हैं. दुनिया भर के कई अन्य देशों को भी इस तरह के युद्ध की कीमत चुकानी पड़ी है.सैन्य अभियान जैसे प्रतिबंधों को शुरू करना आसान है, लेकिन उन्हें समाप्त करना मुश्किल है. प्रतिबंधों की नौकरशाही (बैंकिंग और वित्तीय संस्थान) अपनी गति से चलती है.पीछे हटना अधिक कठिन क़दम होने जा रहा है. इसमें कूटनीति को हस्तक्षेप करना ही चाहिए - चाहे वह संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन हों, या फिर दुनिया की अन्य बड़ी शक्तियां हों.यह समय बुद्धिमान, संवेदनशील कूटनीति का होना चाहिए -  युद्ध की आग को हवा देने के लिए नहीं, क्योंकि यह कोई  ऐसा संघर्ष नहीं है जिसे अच्छाई या बुराई के दोहरे स्वरूप में निपटाया जा सकता है. अगर इसे उसी दोहरे स्वरूप में देखा गया तो इसका केवल एक ही समाधान होगा - और वो है तीसरा विश्व युद्ध.
युद्ध और  शांति के बीच झूलते ऐतिहासिक निर्णय || War vs. Peace - Choosing the Right Side of History
23-03-2022
युद्ध और शांति के बीच झूलते ऐतिहासिक निर्णय || War vs. Peace - Choosing the Right Side of History
डिप्लोमेसी को ज़िंदा रखने के लिए ज़रूरी है कि सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे प्रोपगेंडा और 'ट्विटर वॉर' को रोका जाए. ये अच्छी बात है कि यूक्रेन और रूस के बीच बातचीत का सिलसिला जारी है. एक ओर हम देखते हैं कि कुछ आशावादी संदेश समाधान की ओर इशारा कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर, घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दर्शकों की प्रतिक्रिया पर ध्यान दिया जा रहा है.यह महत्वपूर्ण है कि यूक्रेन में जल्द से जल्द युद्ध विराम हो - बातचीत के बेहतर बिंदु जारी रह सकते हैं. अगर 'यूक्रेन संकट' का समाधान जल्द नहीं मिलता है, तो निश्चित रूप से यूरोप और नेटो शक्तियों का ध्यान वहां स्थानांतरित हो जाएगा.यदि यूरोप उस तरह की अराजकता का शिकार हो जाता है जिसे हमने सीरिया या पश्चिम एशिया में विकसित होते देखा है, तो यूरोपीय एकता कहां होगी? इसलिए ज़रूरी है कि यह युद्ध रुके, अन्यथा यह आग किसी को भी अपनी जद में ले लेगी.भारत का स्टैंड एक परिपक्व स्टैंड है जिसे बनाए रखने की ज़रूरत है. इस संघर्ष में दोनों पक्षों के पास जवाब देने के लिए बहुत कुछ है. आज जिस 'सार्वभौमिक व्यवस्था' की चर्चा हो रही है, और जिस तरह से उसका क्रियान्वयन हुआ है उस बात की जांच होनी चाहिए कि क्या वह वास्तव में उतना ही 'सार्वभौमिक' था जितना की उसके होने का दावा किया जा रहा है. और अगर हम एक सच्चे लोकतंत्र हैं, तो हमें दृष्टिकोण और धारणाओं में आपसी मतभेदों का सम्मान करना चाहिए, न कि उन लोगों पर इतिहास लिखने के दौरान ग़लत का साथ देने का आरोप लगाना चाहिए जो इस समय उनकी राय से अपनी एक अलग राय रखते हैं.
रूस और यूक्रेन: इस युद्ध का कोई विजेता नहीं || Russia and Ukraine: Some Wars Have No Winners ||
16-03-2022
रूस और यूक्रेन: इस युद्ध का कोई विजेता नहीं || Russia and Ukraine: Some Wars Have No Winners ||
रूस और यूक्रेन: इस युद्ध का कोई विजेता नहीं!खुद को सुरक्षित बनाने की कोशिश में, इस जंग में शामिल दोनों पक्षों- रूस और नेटो के नेतृत्व में अमेरिका ने खुद को अपनी सबसे बदतरीन असुरक्षा के  हवाले कर लिया है. नेटो के रूस की सीमाओं तक हो रहे विस्तार को लेकर पुतिन काफी बेचैन थे. इस घबराहट में राष्ट्रपति पुतिन ने युद्ध की घोषणा कर दी. युद्ध के मैदान में टैंकों को आगे किया गया और बातचीत का सिलसिला कहीं पीछे छूट गया.  21 फरवरी को युद्ध शुरू होने तक, फ्रांस और जर्मनी कुछ हद तक रूस के सबसे बुरे डर को समझने और उसे दूर करने का प्रयास कर रहे थे. लेकिन, पुतिन ने युद्ध की घोषणा के साथ ही यह स्पष्ट कर दिया कि इस लड़ाई का केंद्र न अब पूर्व का डीपीआर (दोनेत्स्क) है, और न ही एलपीआर (लुहान्सक) है. बल्कि ये संघर्ष अबयूक्रेन के अस्तित्व को लेकर ही सवाल खड़े कर रहा है.उम्मीद है कि सभी पक्षों को अब एहसास हो गया होगा कि आज वे जंग की ऐसी स्थिति में फंस चुके हैं, जहां से कोई भी विजेता बनकर बाहर नहीं निकलेगा.
Reckoning Time for the 20th Century State | व्यवस्था और उस पर गहराता संकट
07-12-2021
Reckoning Time for the 20th Century State | व्यवस्था और उस पर गहराता संकट
सामान्य से थोड़ा सा दूर खड़ी दुनिया को कोविड19 (Covid_19) के नए वेरिएंट OMICRON ने दोबारा उसी जगह लाकर खड़ा कर दिया है, जहां से सब कुछ शुरू हुआ था. बेतरतीब प्रतिक्रिया और यातायात के साधनों पर प्रतिबंध लगने शुरू हो गए हैं. क्या हमने पिछले दो साल से लगातार लड़ी जा रही कोविड (Coronavirus) से जंग में कुछ भी नहीं सीखा है?कोरोना वायरस महामारी (Coronavirus Pandemic) 21वीं सदी की आख़िरी और सबसे कड़ी चेतावनी है उन राज्यों और संस्थाओं को जिन्हें 20वीं सदी की कल्पना और यथार्थ के आधार पर गढ़ा गया था. सच्चाई ये है कि कोरोना वायरस, प्रवासियों या शरणार्थियों का संकट, व्यापार संकट से भी ज़्यादा बड़ा दैत्य हमारे दरवाज़े पर मुंह बाये खड़ा है जो इन सभी समस्याओं के जोड़ से भी ज़्यादा व्यापक और गंभीर है. पूरे विश्व के दरवाज़े पर खड़ा यह संकट है हमारी लगातार हारती  अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं और असफ़ल होते इन संस्थानों में तैनात तमाम सदस्य राष्ट्रों के प्रतिनिधि. ये सभी 21वीं सदी के ताकतवर संकटों से निपटने में नाकाम दिखाई दे रहे हैं.
Agricultural Reforms: पटरी से उतरा कृषि "सुधार"- अब आगे क्या?
30-11-2021
Agricultural Reforms: पटरी से उतरा कृषि "सुधार"- अब आगे क्या?
हाल ही में, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) ने तीन कृषि कानूनों (Three Farm Laws 2020) को अचानक निरस्त करने की घोषणा कर दी. अपने आप में यह आश्चर्यजनक फैसला था. प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) का ये फैसला कृषि सुधार (Agricultural Reforms) विश्लेषकों के लिए किसी झटके से कम नहीं था जबकि अधिकांश लोगों ने इसे नागरिकों और किसान आंदोलन (Farmers Protest) की जीत के रूप में देखा. अगर ऐसा था तो चीजें गलत कहां हुईं?कृषि सुधार की जरूरतों से कोई इनकार नहीं करता लेकिन विवाद इस बात को लेकर है कि सुधार क्या होता है. क्या एक अध्यादेश के माध्यम से कृषि सुधार को आगे बढ़ाने का कदम ही समस्याग्रस्त था. कोरोना वायरस महामारी के दौरान इमरजेंसी जैसी स्थिति के बीच इन तीन कृषि विधेयकों को पारित किया गया और जिन्हें बाद में लागू भी नहीं किया गया? अध्यादेशों को लाने का इससे बुरा समय दूसरा नहीं हो सकता था.इस बात का श्रेय किसानों को ही जाता है कि जब कोरोना वायरस महामारी (Coronavirus) के दौरान देश की पूरी अर्थव्यवस्था (Indian Economy) चरमरा गई तब कृषि ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र (Agriculture Sector in India) था जो भारतीय अर्थव्यवस्था का उज्ज्वल सितारा बन कर उभरा. दूसरी तरफ सरकार अध्यादेशों के ज़रिए कृषि कानून किसानों पर थोपने में लगी हुई थी.
COP26 or Cop Out | COP26: जलवायु परिवर्तन कोई गिल्ली डंडा का खेल नहीं
24-11-2021
COP26 or Cop Out | COP26: जलवायु परिवर्तन कोई गिल्ली डंडा का खेल नहीं
ग्लासगो में दुनिया भर के सौ से भी ज्यादा देशों ने COP26 समिट के दौरान दो सप्ताह तक जलवायु परिवर्तन पर चर्चा की. इस कार्यवाही पर Covid 19 महामारी और चीन-अमेरिका ट्रेड वॉर की छाया पड़ी। यूरोपीय संघ भी हाल फिलहाल ऊर्जा संकट से गुज़र रहा है जिसने इस दौरान पूरी समस्या को  बढ़ाने का ही काम किया है. इसलिए देखा जाए तो COP26 के परिणामों पर निराशा अप्रत्याशित नहीं है.वास्तव में कहा जाए तो, क्लाइमेट एक्शन अब ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के बारे में नहीं रह गया है. यह अब व्यापार, प्रौद्योगिकी और भू-राजनीतिक मुद्दों से जुड़ा एक भू-राजनीतिक मुद्दा बन गया है.
अमेरिका बनाम चीन ने पोस्ट कोविड दुनिया पर अपना लंबा साया डाला है
26-10-2021
अमेरिका बनाम चीन ने पोस्ट कोविड दुनिया पर अपना लंबा साया डाला है
यूं तो चीन और अमेरिका के बीच जारी टकराव नया नहीं है लेकिन इन दोनों ही देशों के बीच अब ताइवान नया मुद्दा बनकर उभरा है. हाल ही में ताइवान के हवाई रक्षा क्षेत्र में बड़ी संख्या में चीनी सैन्य जेट विमान देखे गए हैं.  वहीं इस साल जून में चीन ने अपनी कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल पूरे होने का जश्न मनाया है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग 'माओ जैकेट' में दिखाई दिए थे. इस दौरान राष्ट्रपति जिनपिंग ने चीन को "चीनी विशेषताओं वाले समाजवाद के एक नए युग" के रास्ते पर वापस लाने की बात भी कही थी. राष्ट्रीय कांग्रेस की दृष्टि में उनकी नज़रें वर्ष 2022 पर टिकी हैं. वहीं राष्ट्रवाद की एक नई लहर सत्ता में उनकी निरंतर पकड़ को सुनिश्चित करती है.  अमेरिका में सत्ता परिवर्तन और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बनाई अमेरिकी नीतियों में बदलाव के बाद चीन की उम्मीदों पर पानी फिर गया है. अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाईडेन और उनका बाईडेन प्रशासन क्वाड को मजबूत करने के लिए आगे बढ़ा है. बाईडेन प्रशासन ने इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीनी जुझारूपन को रोकने के अपने इरादों के संकेत दिए हैं.  चीन, अमेरिका की तुलना में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सर्वोच्च शिखर पर होना चाहता है.  क्या चीन वर्ल्ड लीडर बनने के लिए तैयार है? हालांकि, अमेरिका और उसके सहयोगियों से मिल रही चुनौतियां चीन को इस पद से काफी दूर धकेलती है.  संजय जोशी, चेयरमैन, ओआरएफ़, नग़मा सहर, सीनियर फेलो, ओआरएफ़ के साथ बातचीत.
अफ़ग़ानिस्तान को कभी हाथ न आने वाली शांति की आस!
12-10-2021
अफ़ग़ानिस्तान को कभी हाथ न आने वाली शांति की आस!
अफ़ग़ानिस्तान के ताज़ा और लगातार बदलते हालात भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिये ख़तरनाक साबित हो सकते हैं. इसकी वजह अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता की चाबी एक कट्टरपंथी संगठन के हाथों में होना है. ऐसे में सवाल ये उठता है कि आख़िर भारत करे तो क्या करें? यहां भारत के साथ एक मूलभूत समस्या जुड़ी है. भारत उस ‘दोहा’ शांति वार्ता का हिस्सा नहीं था, जिसके तहत अमेरिका और तालिबान के बीच समझौता हुआ और अमेरिकी सेना की वतन वापसी की शुरूआत हुई. भारत को उसमें शामिल न किया जाना, कहीं न कहीं उसके लिये एक निराशा की वजह बनी. ये सब कुछ आपस में मिलकर अब भारत के लिये ऐसे हालात बन गये हैं, जहां उसे अपनी सारी ताक़त और संसाधन के लिये पश्चिम का मुंह ताकना पड़ रहा है. इससे मुमकिन है कि क्वॉड भी काफी हद तक सामुद्रिक क्षेत्र में कमज़ोर पड़ेगा. अफ़ग़ानिस्ता में स्थिरता भारत के लिये बेहद ज़रूरी है, क्योंकि तभी वो क्वॉड में रचनात्कमक योगदान कर पायेगा. भारत ने लगभग तीन बिलियन डॉलर की रकम का अफ़ग़ानिस्तान में निवेश किया है, वहां की आधारभूत संरचना के निर्माण में मदद करने के लिये न कि हथियार और युद्ध के मक़सद से. और यही वो वजह है जिस कारण भारत और भारतीय नागरिकों को अफ़ग़ानी नागरिकों के बीच पसंद किया जाता रहा है. इसलिये ये क्वॉड के अन्य देशों के हित में होगा कि वो इस बात का समर्थन करें कि अफ़ग़ानिस्तान के विकास में आने वाले दिनों में भी भारत की महत्वपूर्ण भूमिका बनी रहे.
सामाजिक दूरियां:महामारी के दौर में, विचारों पर ऑनलाइन नियंत्रण   विचारों का बंटवारा
09-09-2021
सामाजिक दूरियां:महामारी के दौर में, विचारों पर ऑनलाइन नियंत्रण विचारों का बंटवारा
सोशल मीडिया ने हमारे जीवन में ग़लत सूचनाओं के एक नये किस्म को जन्म दिया है — इसे हम आपसी सहयोग द्वारा फैलाई गयी झूठी ख़बर कह सकते हैं.  इन सहायक सोशल मीडिया जनित नेटवर्क का गठन झूठ और अफवाह फैलाने के मकसद से किया गया है, जिसका इस्तेमाल प्रोपेगेंडा फैलाने के लिये एक हथियार के तौर पर किया जाता है. ये वो हथियार है जिसका इस्तेमाल हमारे विभाजित समाज का हर वर्ग खुलेआम करता है. सच्चाई ये है कि इन नेटवर्किंग समूह के ज़रिये सबसे वीभत्स और विचित्र विचारों को भी समाज की मुख्यधारा में स्वीकार्यता मिल जाती है. हालांकि- ध्यान से देखने पर हम पायेंगे कि ये झूठ जिसे प्रोपेगेंडा के तौर पर फैलाया जा रहा है, उसके जड़ में व्याप्त समस्या की वजह समाज में गहरे तक धंसा विभाजन है. ज़रूरत उस भेदभाव, उस विभाजन और उस दरार को दूर करने की है. क्या सोशल मीडिया पर लगाये जाने वाले बैन का कोई फायदा है? शायद नहीं.ये एपिसोड जनवरी 2021 में  प्रसारित हुआ था.
क़ासिम सुलेमानी की हत्या: पश्चिमी एशिया में लगातार विवादों के दलदल में फंसता अमेरिका!
21-08-2021
क़ासिम सुलेमानी की हत्या: पश्चिमी एशिया में लगातार विवादों के दलदल में फंसता अमेरिका!
अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर क़ाबू पाने में नाकाम रहने के चलते 20 साल बाद अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान राज की वापसी हो गई है. अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना वापस बुलाने का फ़ैसला डोनाल्ड ट्रंप ने लिया था. अफ़ग़ानिस्तान से सैनिक वापस बुलाने के फ़ैसले को लेकर, जानकारों ने बार बार अमेरिका से हालात बिगड़ जाने का अंदेशा जताया था. फिर भी बाइडेन प्रशासन ने ट्रंप प्रशासन के लिए फ़ैसले को लागू करते हुए अमेरिकी सेना वापस बुला ली. इसका नतीजा आज हम अफ़ग़ानिस्तान के मंज़र के तौर पर देख रहे हैं.पिछले साल तीन जनवरी को ईरान के कद्दावर जनरल और अयातुल्ला ख़मेनेई के बाद दूसरे ताक़तवर शख़्स क़ासिम सुलेमानी की हत्या उस वक़्त हुई थी जब ईरान, इराक़ और लेबनान के युवा विदेशी ताक़तों के बढ़ते असर के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतर रहे थे. लेकिन, सुलेमानी की हत्या के बाद हर तबक़े के युवाओं का वो विरोध प्रदर्शन शांत हो गया था.अमेरिका ने अक्सर ख़ुद को पश्चिमी एशिया के दलदल में फंसा हुआ पाया है. इस दलदल से निकलने की अपनी हर कोशिश में अमेरिका और भी फंसता चला गया है. ईरान को अलग थलग करने की कोशिश में अमेरिका ने ख़ुद को ही लगभग अलग थलग कर लिया है. आज उसका कोई भी सहयोगी देश उसके साथ खड़ा नज़र नहीं आता. कोई भी जंग नहीं चाहता- क्योंकि दोनों ही पक्षों के लिए युद्ध के सियासी जोखिम बहुत ज़्यादा हैं.फिर भी भयंकर पागलपन के इस दौर में जाने अनजाने किसी ग़लती से जंग के शोले भड़कने का ख़तरा मंडरा रहा है.इंडियाज़ वर्ल्ड के इस एपिसोड में सुंजॉय जोशी और नग़मा सगर इसी मसले पर चर्चा कर रहे हैं.
बाइडेन और हैरिस की अगुवाई में अमेरिका
06-08-2021
बाइडेन और हैरिस की अगुवाई में अमेरिका
व्हाइट हाउस के समक्ष कई चुनौतियां हैं. जहां एक ओर, जो बाइडेन और कमला हैरिस के प्रशासन के हाथों कोविड-19 की महामारी से तबाह हुए देश की कमान आई है, वहीं  नौकरियों की कमी से जूझ रही अमेरिकी अर्थव्यवस्था पटरी से उतर रही है. साल 2019 के चुनाव परिणामों की तुलना 2016 के चुनाव परिणामों से करने पर यह सामने आता है कि भले ही मतदाताओं ने बाइडेन को स्पष्ट बहुमत दिया, लेकिन तथ्य यह है कि ट्रंप अपने मतदाता आधार को बढ़ाने में क़ामयाब रहे.ट्रंप ने भले ही व्हाइट हाउस छोड़ दिया हो, लेकिन 'ट्रंपवाद' अब भी क़ायम है.अफ़ग़ानिस्तान के प्रति अमेरिकी नीति में कोई बदलाव नहीं आया है. हालांकि, ईरान को लेकर उसकी नीति में आमूलचूल बदलाव होगा. अमेरिका अपने सहयोगियों से फिर हाथ मिलाएगा और जेसीपीओए में वापस लौटेगा.यह एपिसोड मूल रूप से जनवरी 2021 में प्रसारित किया गया था.
हिंद-प्रशांत में प्रतिद्वंदिता और प्रोजेक्ट एशिया के गठजोड़
06-08-2021
हिंद-प्रशांत में प्रतिद्वंदिता और प्रोजेक्ट एशिया के गठजोड़
पिछले साल हमने देखा कि अमेरिका ने चीन के साथ व्यापार पर प्रतिबंध लगाए;सीमा पार(लाइन ऑफ कंट्रोल: एलएसी)चीन और भारत के बीच संघर्ष की ख़बरेंआईं;और अब व्हाइट हाउस में एक नए अमेरिकी राष्ट्रपति हैं, जो भारत और उसकेपड़ोसी देशों के बीच तनाव दूर करने के लिए बातचीत का रास्ता सुझा रहेहैं.वर्तमान की भू-राजनीतिक झुकावों का मूल्यांकन कोई कैसे करेगा?दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ-साथ दक्षिण एशियाई देशों का ये सबक है कि वेशक्तिशाली देशों के साथ रणनीतिक प्रतिद्वंदिता में न उलझें. ट्रंप के बाद यूरोप भीउन रणनीतिक स्वायत्तता के महत्त्व को समझ रहा है,चीन और अमेरिका की आपसीप्रतिस्पर्धा के बीच कोई देश नहीं आना चाहता है2020 में रायसीना वार्ता में अमेरिका के उप राष्ट्रीय सुरक्षासलाहकार,मैट पोटिंगर,ने कहा था कि हिंद-प्रशांत का विस्तार कैलिफोर्निया से लेकरकिलिमंजारो तक है.इससे पहले 2018 में अमेरिकी सरकार ने यूएस पैसिफिककमांड का नाम बदलकर यूएस इंडो-पैसिफिक कमांड कर दिया था.यही कारण है कि भारत को हिंद महासागर और एशियाके पूर्व से लेकर पश्चिम तक अपने प्रति झुकाव रखने वाले संबंधों की आवश्यकताहै,जो आपस में ‘संबद्ध’ होकर भारत को सुरक्षा प्रदान कर सकें. एक बड़े एशियाईप्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने के लिए ऐसे समझौतों या संबंधों की ज़रूरत है,जो इन सभीपहलुओं को शामिल करते हों.
बीजिंग और वॉशिंगटन के बीच संबंधों की नई शुरुआत!
06-08-2021
बीजिंग और वॉशिंगटन के बीच संबंधों की नई शुरुआत!
एक बहुध्रुवीय देश में बहुपक्षीयता को फिर से स्थापित करने का अमेरिका का संकल्प है,जो विश्व में गठबंधनों की महत्त्व पर ज़ोर देता है,जहां लगभग सभी देश ऐसी चुनौतियों से जूझ रहे हैं, जो महज़ सीमाओं तक सीमित नहीं है .एक अधिनायकवादी विश्व और एक (नियम आधारित)लोकतांत्रिक विश्व के बीच सीमा रेखा खींच दी गई है और अमेरिका के लिए चीन को, सबसे बड़ी चुनौती के रूप में पहचाना गया है. यही नहीं विश्व व्यवस्था अमेरिका की मित्रता के अधीन है.चूंकि अब कूटनीति पर ज़ोर देने की मांग की जा रही है,ऐसे में चीन पर उसका रुख़ क्या होगा? चीन ने अपने दो बड़े सत्रों का आयोजन किया है और नेशनल पीपल्स कांग्रेस (एनपीसी)ने हॉन्गकॉन्ग में लोकतंत्र को कमज़ोर बनाने की कोशिशें की हैं.एनपीसी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के फैसलों का ही अनुसरण करती है.चीन के सामने ये दुविधा है कि वो वैश्विक नेतृत्वकर्ता के रूप में स्वयं को इकलौती शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहता है.